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गुरुवार, 13 मई 2010

मुक्तिका: कुछ हवा दो.... --संजीव 'सलिल'


मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'

कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ..

खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ..

प्यार की, मनुहार की, इकरार की, अभिसार की 
मशालें ले फूँक दो दहशत, कहीं फिर बुझ न जाएँ..

ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना 'सलिल' फिर बुझ न जाएँ...

सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
 चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ..
***
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

2 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना 'सलिल' फिर बुझ न जाएँ...

Beautiful creation !

Anamikaghatak ने कहा…

prashansha ke liye shabda nahi hai.ati sundar