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मंगलवार, 4 अगस्त 2009

रक्षा बंधन के दोहे: आचार्य सन्जीव 'सलिल'

रक्षा बंधन के दोहे:
संजीव

चित-पट दो पर एक है,दोनों का अस्तित्व.

भाई-बहिन अद्वैत का, लिए द्वैत में तत्व..

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दो तन पर मन एक हैं, सुख-दुःख भी हैं एक.

यह फिसले तो वह 'सलिल', सार्थक हो बन टेक..

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यह सलिला है वह सलिल, नेह नर्मदा धार.

इसकी नौका पार हो, पा उसकी पतवार..

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यह उसकी रक्षा करे, वह इस पर दे जान.

'सलिल' स्नेह' को स्नेह दे, कर दे जान निसार..

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शन्नो पूजा निर्मला, अजित दिशा मिल साथ.

संगीता मंजू सदा, रहें उठाये माथ.

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दोहा राखी बाँधिए, हिन्दयुग्म के हाथ.

सब को दोहा सिद्ध हो, विनय 'सलिल' की नाथ..

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राखी की साखी यही, संबंधों का मूल.

'सलिल' स्नेह-विश्वास है, शंका कर निर्मूल..


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सावन मन भावन लगे, लाये बरखा मीत.

रक्षा बंधन-कजलियाँ, बाँटें सबको प्रीत..

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मन से मन का मेल ही, राखी का त्यौहार.

मिले स्नेह को स्नेह का, नित स्नेहिल उपहार..

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निधि ऋतु सुषमा अनन्या, करें अर्चना नित्य.

बढे भाई के नेह नित, वर दो यही अनित्य..

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आकांक्षा हर भाई की, मिले बहिन का प्यार.

राखी सजे कलाई पर, खुशियाँ मिलें अपार..

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गीता देती ज्ञान यह, कर्म न करना भूल.

स्वार्थरहित संबंध ही, है हर सुख का मूल..

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मेघ भाई धरती बहिन, मना रहे त्यौहार.

वर्षा का इसने दिया. है उसको उपहार..

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हम शिल्पी साहित्य के, रखें स्नेह-संबंध.

हिंदी-हित का हो नहीं, 'सलिल' भंग अनुबंध..

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राखी पर मत कीजिये, स्वार्थ-सिद्धि व्यापार.

बाँध- बँधाकर बसायें, 'सलिल' स्नेह संसार..

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भैया-बहिना सूर्य-शशि, होकर भिन्न अभिन्न.

'सलिल' रहें दोनों सुखी, कभी न हों वे खिन्न..

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