दोहा सलिला:
श्री चित्रगुप्त भजन
.
ॐ परात्पर ब्रम्ह प्रभु, चित्रगुप्त ओंकार।
गूंजी अनहद नाद वे, निराकार-भवसार।
प्रभु अविनाशी अनश्वर, निज इच्छा-अनुसार।
रचें शून्य से सृष्टि हो, निराकार साकार।
एक वही कोई नहीं, दूजा या समकक्ष।
होकर भी वे हैं नहीं, परिधि केंद्र वृत्त अक्ष।
प्रभु ही भाव-अभाव हैं, प्रभु स्वभाव-निर्भाव।
हैं अनादि, वे सादि भी,सांत-अनंत निभाव।
प्रणव मन्त्र ओंकार ही, सकल सृष्टि का मूल।
भूत-आज- भावी त्रयी, महाकाल के शूल।
ॐ निनादित नाद नित, वर्तुल वाले अनंत।
अन्तरिक्ष में व्याप्त विधि,गुंजित दिशा दिगंत।
ॐ निरंजन नाद से, उपजा दिव्य प्रकाश।
नव आभा से चमत्कृत,ध्वनि-प्रकाश के पाश।
परिभ्रमित ऊर्जा प्रबल, परिक्रमित हो नित्य।
सघन-संगठित हो बनी, कण अनगिनत अनित्य।
कण-कण में परिव्याप्त थी, ऊर्जा शक्ति अपार।
मिलन-विलय घर्षण जनित, कण ज्योतित अंगार।
आकर्षण हरि में बहुत, विधि भी सके न मेट।
प्रबल विकर्षण हर कहीं सकता कौन समेट?
विधि-हरि एक-अनेक हों, हर अनेक से एक।
हैं असंख्य ब्रम्हांड में ,लख दिग्भ्रमित विवेक.
कण में कण के मिलन से, बने पिंड-आकाश।
कण ही कण से अलग हो, रचे नाश के पाश।
कण से कण टकरा करे, नव ऊर्जा संचार।
कण-कण में परब्रम्ह का, पल-पल कर दीदार।
कण-कण के कारण बने, चिन्मय घाट-आकाश।
कण-कण ही तारण-तरण, मृण्मय भव-भवपाश।
अजर अमर अक्षर प्रखर, बिखर-निखर कण व्याप्त।
पिंड परवलय को चुनें, केंद्र भास्कर आप्त।
शक्ति परा-अपरा अजित, अमित करे विस्तार।
गृह-उपगृह परिपथ सहित, रचें सौर-संसार।
सिन्धु समाहित बिंदु में, बिंदु-सिंधु में लीन।
गिरी-गव्हर सागर अगम, प्रगटे हुए विलीन।
ऊर्जा और समीर के, कण मिल उगलें आग।
ज्वालाओं की लपट या, अगणित ऊर्जा नग?
तापमान चढ़-उतर कर, खेल रहा क्या खेल?
क्रिया-प्रतिक्रिया नित नयी, विस्मित था नभ झेल।
सृजन-नाश के ताप से, कैसे होगा त्राण?
आकुल-व्याकुल थे सकल, सम्प्राणित पाषाण।
अनहद ध्वनि के नाद से, प्रगट नर्मदा दिव्य।
अमरकंटकी निःसृत हो, प्रवहीं भू पर नव्य।
श्री चित्रगुप्त भजन
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ॐ परात्पर ब्रम्ह प्रभु, चित्रगुप्त ओंकार।
गूंजी अनहद नाद वे, निराकार-भवसार।
प्रभु अविनाशी अनश्वर, निज इच्छा-अनुसार।
रचें शून्य से सृष्टि हो, निराकार साकार।
एक वही कोई नहीं, दूजा या समकक्ष।
होकर भी वे हैं नहीं, परिधि केंद्र वृत्त अक्ष।
प्रभु ही भाव-अभाव हैं, प्रभु स्वभाव-निर्भाव।
हैं अनादि, वे सादि भी,सांत-अनंत निभाव।
प्रणव मन्त्र ओंकार ही, सकल सृष्टि का मूल।
भूत-आज- भावी त्रयी, महाकाल के शूल।
ॐ निनादित नाद नित, वर्तुल वाले अनंत।
अन्तरिक्ष में व्याप्त विधि,गुंजित दिशा दिगंत।
ॐ निरंजन नाद से, उपजा दिव्य प्रकाश।
नव आभा से चमत्कृत,ध्वनि-प्रकाश के पाश।
परिभ्रमित ऊर्जा प्रबल, परिक्रमित हो नित्य।
सघन-संगठित हो बनी, कण अनगिनत अनित्य।
कण-कण में परिव्याप्त थी, ऊर्जा शक्ति अपार।
मिलन-विलय घर्षण जनित, कण ज्योतित अंगार।
आकर्षण हरि में बहुत, विधि भी सके न मेट।
प्रबल विकर्षण हर कहीं सकता कौन समेट?
विधि-हरि एक-अनेक हों, हर अनेक से एक।
हैं असंख्य ब्रम्हांड में ,लख दिग्भ्रमित विवेक.
कण में कण के मिलन से, बने पिंड-आकाश।
कण ही कण से अलग हो, रचे नाश के पाश।
कण से कण टकरा करे, नव ऊर्जा संचार।
कण-कण में परब्रम्ह का, पल-पल कर दीदार।
कण-कण के कारण बने, चिन्मय घाट-आकाश।
कण-कण ही तारण-तरण, मृण्मय भव-भवपाश।
अजर अमर अक्षर प्रखर, बिखर-निखर कण व्याप्त।
पिंड परवलय को चुनें, केंद्र भास्कर आप्त।
शक्ति परा-अपरा अजित, अमित करे विस्तार।
गृह-उपगृह परिपथ सहित, रचें सौर-संसार।
सिन्धु समाहित बिंदु में, बिंदु-सिंधु में लीन।
गिरी-गव्हर सागर अगम, प्रगटे हुए विलीन।
ऊर्जा और समीर के, कण मिल उगलें आग।
ज्वालाओं की लपट या, अगणित ऊर्जा नग?
तापमान चढ़-उतर कर, खेल रहा क्या खेल?
क्रिया-प्रतिक्रिया नित नयी, विस्मित था नभ झेल।
सृजन-नाश के ताप से, कैसे होगा त्राण?
आकुल-व्याकुल थे सकल, सम्प्राणित पाषाण।
अनहद ध्वनि के नाद से, प्रगट नर्मदा दिव्य।
अमरकंटकी निःसृत हो, प्रवहीं भू पर नव्य।
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